बचपन कविता

       बचपन 

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
 गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।
चिंता-रहित खेलना-खाना और फिरना निर्भय स्वच्छंद।
 कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद|
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी |
 बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी।
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
 किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
 बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे।
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया।
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
 धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे।
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
 लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमङ्ग रँगीली थी।
  तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
 मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
 अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने।
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं।
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
 आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है।
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
 चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना।
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
 व्याकुल व्यथा मिटाने वाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति।
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
 क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
 नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।
 कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
 मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई?' बोल उठी वह माँ, काओ ।
 हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा तुम्हीं खाओ ।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। 
 मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया|
 सुभद्रा कुमारी चौहान 

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