काव्य हेतु का अर्थ "काव्य का प्रयोजन या काव्य का उद्देश्य " है।
काव्य प्रयोजन से तात्पर्य उस शक्ति से है जिसकी प्रेरणा से कवि कविता लिखने को उद्यत होता है। किसी भी कार्य को करने के पीछे कर्ता का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यही उद्देश्य (हेतु ) मनुष्य को किसी भी कार्य में प्रवृत करता है। काव्य की सर्जना के पीछे उसके सर्जक का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है ।यही उद्देश्य काव्य प्रयोजन कहलाता है ।
भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से ही काव्य हेतु या काव्य प्रयोजन पर चर्चा होती रही है | संस्कृत के काव्य शास्त्रियों ने अपने-अपने मतानुसार काव्य हेतुओं का वर्णन किया है, जो कि निम्न प्रकार है -
काव्य प्रयोजन से तात्पर्य उस शक्ति से है जिसकी प्रेरणा से कवि कविता लिखने को उद्यत होता है। किसी भी कार्य को करने के पीछे कर्ता का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यही उद्देश्य (हेतु ) मनुष्य को किसी भी कार्य में प्रवृत करता है। काव्य की सर्जना के पीछे उसके सर्जक का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है ।यही उद्देश्य काव्य प्रयोजन कहलाता है ।
भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से ही काव्य हेतु या काव्य प्रयोजन पर चर्चा होती रही है | संस्कृत के काव्य शास्त्रियों ने अपने-अपने मतानुसार काव्य हेतुओं का वर्णन किया है, जो कि निम्न प्रकार है -
भरत मुनि
भरत मुनि ने काव्य-प्रयोजन की चर्चा नाटक के सन्दर्भ में की है | उन्होंने नाटक का उद्देश्य धर्म कमाना, हित-साधन, आयु-वर्धन, बुद्धि-वर्धन एवम् लोकोपदेश माना है | और उक्त कारण ही कवि को कविता लिखने हेतु प्रेरणा देते हैं ।
आचार्य भामह
भामह ने काव्य का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के साथ-साथ अतिरिक्त कलाओं में विलक्षणता,कीर्ति और आनंद की उपलब्धि को माना है |आचार्य वामन
वामनाचार्य ने काव्य प्रयोजन को दो वर्गों में विभाजित करते हुए (1) दृश्य और (2) अदृश्य प्रयोजन बताया है ।उन्होने कीर्ति को अदृश्य प्रयोजन या अप्रत्यक्ष प्रयोजन तथा प्रीति और आनन्द प्राप्ति को दृष्य या प्रत्यक्ष प्रयोजन माना है।आनन्दवर्धन के काव्य प्रयोजन
आनन्दवर्धन काव्य का प्रयोजन सहृदयों के मनोरंजन को मानते हैं।
मम्मट के काव्य प्रयोजन
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के निम्न छः प्रयोजन हैं-
1. यश की प्राप्ति 2.धन की प्राप्ति
3. व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति 4. आशिव की क्षति
5. अलौकिक आनंद की प्राप्ति 6. भार्यासम मधुर उपदेश
हिंदी के भी कुछ आचार्यों ने काव्य प्रयोजन पर प्रकाश डाला है-
कुलपति
कुलपति ने आचार्य मम्मट के समान छः प्रयोजन माने हैं।
"जस, सम्पत्ति, आनन्दअति, दुखिन डारे खोय।
होत कवित पे चतुरई ,जगत बाम बस होय।।"
कुलपति के अनुसार यश, सम्पत्ति, आनन्द, सुख प्राप्ति के साथ-साथ दुखों का नाश व संसार का पत्नी के समान वामभागी होना ये छ्ह प्रयोजन माने गये हैं ।
कुलपति के अनुसार यश, सम्पत्ति, आनन्द, सुख प्राप्ति के साथ-साथ दुखों का नाश व संसार का पत्नी के समान वामभागी होना ये छ्ह प्रयोजन माने गये हैं ।
देव
आचार्य देव ने केवल यश को काव्य हेतु मानते हुए भामह की पुष्टि की है -
ऊँच नीच अरु कर्म बस, चलो जात संसार।
रहत भव्य भगवंत जस , नव्य काव्य सुख सार।।
गोस्वामी तुलसीदास
तुलसीदास ने काव्य रचना आत्मसुख के लिए की। अतः वे काव्य प्रयोजन 'स्वान्त सुखाय' मानते हैं ।
"स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा |"
उपरोक्त विवेचनानुसार ही कवि का प्रयोजन काव्य की सर्जना करते समय रहता है, और पाठक या श्रोता का प्रयोजन काव्य को पढ़ते या सुनते समय रहता है । इन दोनों को ही आनन्दानुभूति आवश्यक है।
2 comments:
Nice for this post
धन्यवाद जी
Post a Comment