रीति(Reeti in hindi)

रीति 

यह शब्द रीड धातु में क्तिन प्रत्यय के योग से बना है । अतः रीति का अर्थ हुआ 'मार्ग'। अर्थात रीति कविता का वह मार्ग या रास्ता है, जिससे वह गति करती है या गुजरती है ।
काव्य रीति से अभिप्राय मोटे तौर पर काव्य रचना की शैली से है। 
यद्यपि संस्कृत काव्यशास्त्र में यह एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है। काव्य रीति को काव्य की आत्मा मानकर काव्य पर विचार करने वाला एक संप्रदाय रीति-संप्रदाय के नाम से विख्यात है, जिसके प्रवर्तक आचार्य वामन हैं।
रीतिरात्मा काव्यस्य।
आचार्य वामन रीति को काव्य की आत्मा मानते हैं | वे रीति को पद रचना की विशिष्ट शैली मानते हैं।
रीति के तीन भेद माने गए | 
 (1) वैदर्भी रीति 
 (2) गौड़ी रीति 
 (3) पांचाली रीति

(1) वैदर्भी रीति  

 माधुर्य व्यंजक वर्णों से युक्त, दीर्घ समासों से रहित तथा छोटे समासों वाली ललित पदरचना का नाम वैदर्भी है | यह रीति श्रृंगार आदि ललित एवं मधुर रसों के लिए अधिक अनुकूल होती है। 
विदर्भ देश के कवियों के द्धारा अधिक प्रयोग में आने के कारण इसका नाम वैदर्भी है।  इसका दूसरा नाम ललिता भी है। वामन तथा मम्मट इसे 'उपनागरिका रीति' भी कहते हैं। 
आचार्य रूद्रट के अनुसार वैदर्भी का स्वरूप इस प्रकार है – समास रहित अथवा छोटे-छोटे समासों से युक्त, श्लेषादि दस गुणों से युक्त एवं 'च' वर्ग की अधिकता युक्त, अल्पप्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति वैदर्भी कहलाती है। वैदर्भी रीति काव्य में विशेष प्रशंसित रीति है। कालिदास को वैदर्भी रीति की रचना में विशेष सफलता मिली है। इस प्रकार वैदर्भी रीति काव्य में सर्वश्रेष्ठ मान्य है। 
उदाहरण - 1.  
      मधुशाला वह नहीं, जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
        भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।
उदाहरण - 2.
    रस सिंगार मंजनु किये कंजनु भंजनु दैन ।
      अंजनु रंजनु ही बिना खंजनु गंजनु नैन ।।   (बिहारी सतसई )
उदाहरण - 3.
     परिरंभ-कुंभ की मदिरा निश्वास मलय के झोंके ।
     मुख-चन्द्र चांदनी-जल से मै उठता था मुख धोके ।। (आंसू)
इस पद में कोमल मधुर वर्णों का प्रयोग हुआ है, समासों का अभाव है। पदावली ललित है,श्रुतिमधुर है, अतः वैदर्भी रीति है।

(2) गौडी रीति  

यह ओजपूर्ण शैली है। ओजपूर्ण वर्णों से सम्पन्न, दीर्घ समास वाली रीति गौडी होती है। वामन गौडी रीति के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं, कि इसमें ओज और कान्ति गुणों का प्राधान्य तथा समास की बहुलता रहती है। मधुरता तथा सुकुमारता का इसमें अभाव रहता है। रुद्रट ने इस को दीर्घ समास वाली रचना माना है | जो कि रौद्र, भयानक, वीर आदि उग्ररसों कीअभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त होती है।
इस रीति की रचना में उद्दीपक वर्णों का प्रयोग होता है, जिससे शौर्य भावना का आविर्भाव होता है। इसी गौडी रीति का दूसरा नाम “परूषा” है। 
गौड़ (बंगाल) प्रदेश के कविजन इस रीति में कविता रचते हैं |
उदाहरण -1.
   अच्छहि निश्च्छ रच्चाहि उजारौं इमि।
    तो से तुच्छ तुच्छन को कछवै न गंत हौं।।
     जारि डारौं लङ्कहि उजारि डारौं उपवन।
     फारि डारौं रावण को मैं हनुमंत हौं।।
उदाहरण -2.
  देखि ज्वाल-जालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
     कह्यो धरो-धरो, धाए बीर बलवान हैं ।
     लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड
      भोजन सनीर, धीर धरें धनु -बान है ।
 ‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
   जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है ।
     स्रुवा सो लँगूल , बलमूल प्रतिकूल हबि,
     स्वाहा महा हाँकि-हाँकि हुनैं हनुमान हैं । (कवितावली)
इस उदाहरण में संयुक्ताक्षरों का प्रचुर प्रयोग है, ओज गुण की अभिव्यक्ति हो रही है। महाप्राण – ट,ठ,ड,ण,ह आदि का प्रयोग हुआ है, अतः इस पद में गौडी रीति है।

(3) पांचाली रीति

पांचाली रीति न तो वैदर्भी रीति की भांति समास रहित होती है, और न ही गौडी की भांति समास-जटित होती है। यह मध्यममार्गी है । इसमें छोटे-छोटे समास अवश्य मिलते है। इस रीति से काव्य भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनता है ।अनुस्वार का प्रयोग न होने से यह वैदर्भी की तुलना में अधिक माधुर्य युक्त होती है ।
जैसे –   मानव जीवन-वेदी पर
           परिणय हो विरह-मिलन का
            सुख-दुःख दोनों नाचेंगे
             है खेल, आँख का मन का ।
समास की स्थिति के अनुसार रीतियां निम्न प्रकार होती हैं ।
1 समास के सर्वथा अभाव की स्थिति में - वैदर्भी रीति।
2 समास के अल्प मात्रा में रहने पर – पाँचाली रीति।
3 समास की बहुलता रहने पर – गौडी रीति ।
 आचार्य वामन के मत में रचना और चमत्कार दोनों रीति पर आश्रित है, वही माधुर्य आदि गुणों के कारण चित्त को द्रवित कर रस-दशा तक पहुँचाती हैं। अतः रीति ही काव्य का सर्वस्व है।


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