प्रतीक (Prateek)

प्रतीक सामान्यत 'चिह्न' को कहते हैं |
कविता में जब कोई वस्तु इस तरह प्रयोग की जाती है, कि वह किसी दूसरी वस्तु की व्यंजना या संकेत करे तब उसे प्रतीक कहते हैं |
काव्य में सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिए कवियों द्वारा बात को सीधे ढंग से न कहकर उन्हें प्रतीक शैली में प्रकट किया जाता है | काव्य में प्रतीकों का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है |
अज्ञेय जी के अनुसार "कोई भी काव्यसाहित्य प्रतीकों की, नये प्रतीकों की सृष्टि करता है, और जब वह ऐसा करना बंद कर देता है तब जड़ हो जाता है |"

  1. कवि जिन प्रतीकों का प्रयोग करता है, वे मौलिक होने चाहिए |
  2. प्रतीक सन्दर्भ या प्रसंग के अनुकूल होने चाहियें |
  3. प्रतीक ऐसे हों जो कि जन साधारण के समझ आ सकें |
  4. प्रतीक कवि के उद्देश्य को पूरित करने वाले होने चाहिए |
  5. प्रतीक कविता के सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले होने चाहिए |
उदहारण - कबीर दास जी का एक दोहा -
            मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
                 मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़ अनत न जाहिं ||
यहाँ पर मानसरोवर = आध्यात्मिक जीवन, जल = ब्रह्मानुभूति, हंस = आत्मा तथा मुक्ता = ज्ञान का प्रतीक है | 
इसी प्रकार-
कवि अज्ञेय द्वारा 'कलगी छरहरे बाजरे की' नामक कविता में नारी के सौन्दर्य का चित्रण नये प्रतीकों द्वारा किया गया है -
ये उपमान मैले हो गए हैं , देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच |
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है,
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी ?
अगर मैं ये कहूँ, बिछली घास हो तुम, 
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की |

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