स्वर्ण-युग

हिन्दी साहित्य का स्वर्ण-युग 


यूँ तो मध्य-युगीन हिन्दी साहित्य का पूर्व-मध्ययुग 'भक्तिकाल' के नाम से जाना जाता है । जैसा कि नाम से ही विदित होता है, इस युग में भक्ति से सम्बंधित ही अधिकतर रचनायें रची गई। किन्तु उस काल की रचनाओं की मात्रात्मक संख्या और उनकी उत्कृष्ठता के परिणामस्वरूप उस युग को "स्वर्ण-युग" कहा गया। जिस समय विद्वानों ने ये नाम दिया उस समय उनके समक्ष वर्तमान युग का प्रचुर साहित्य उपलब्ध नहीं था।
उस समय की काव्य-धारा में बहने वाले निम्न तीन विषय मुख्य थे

निर्गुण संत काव्य

भक्तिकाल का प्रारम्भ निर्गुण संत काव्य से होता है | इस धारा के कवियों में उन संत कवियों का स्थान है,जिन्होंने एकेश्वरवाद में आस्था व्यक्त करते हुए निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति का सन्देश दिया | सामाजिक स्तर पर इन संतों ने पाखण्ड एवम् अंधविश्वासों का पूरी दृढ़ता के साथ खंडन किया |
इसके साथ ही संतों में समन्वय दृष्टि का स्वस्थ रूप से विकास हुआ | इस युग के संत कवि ईश्वर की सत्ता और सर्वशक्तिमान में अटूट विश्वास रखने के कारण अत्यंत निर्भीक,स्पष्टवादी,साहसी और सत्यवादी थे |

प्रेमाख्यानक काव्य

निर्गुण संत कवियों के साथ-साथ उस युग में एक दूसरी काव्य-धारा भी प्रवाहित हो रही थी, जिसे हिंदी काव्य-साहित्य में प्रेमाख्यानक काव्य के नाम से अभिहित किया गया है | भक्तिकाल को स्वर्णकाल बनाने में इनका योगदान भी कम नहीं है | सूफी प्रेम्ख्यानक परम्परा के कवि यूँ तो निर्गुणोपासक थे किन्तु ईश्वर विषयक वर्णनों में प्रतीकात्मक शैली को स्वीकार करने के कारण सगुण का आभास भी उनके काव्य में होता है ।

सगुण भक्तिकाव्य

भक्तिकाल का श्रेष्ठतम काव्य सगुण भक्तिकाव्य है | सगुण भक्ति में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और श्री कृष्ण विषयक काव्य रचना अधिक मात्रा में हुई है | इस युग में हिन्दी काव्य साहित्य के महान कवि सूरदास और तुलसीदास ने काव्य सृजन किया |
काव्य-शास्त्र की कसौटी पर यदि हम देखें तो काव्य के सौन्दर्य-विधायक सभी तत्व जैसे-रस,रीति,ध्वनि,वक्रोक्ति,अलंकार,गुण,वृत्ति आदि का प्रयोग कवियों ने जिस सहजता के साथ किया है, वह अतुलनीय है |

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