मीरा बाई

 भक्तिमति मीराबाई 

जीवन परिचय- 'मीरा' शब्द संस्कृत के 'मीर:' शब्द का स्त्रीलिंग रूप है,जो पृथ्वी,सरस्वती, सरिता आदि अर्थों का बोध कराता है। 'बाई' शब्द का प्रयोग पश्चिमी राजस्थान व गुजरात में स्त्रियों के लिये सम्मानार्थ होता है। मीरा का जन्म मेड़ता के समीप 'कुड़की' गांव में 1504 ईस्वी में दूदाजी के चौथे पुत्र रतनसिंह के घर हुआ। रतनसिंह राठौड़ वंश की मेड़तिया शाखा से संबन्धित थे। उनका विवाह वीरशिरोमणि चित्तौड़गढ़ के राणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठपुत्र भोजराज सिंह के साथ 1516 ईस्वी में सम्पन्न हुआ।
मीरा अधिक समय तक कुड़की में नहीं रह सकी क्योंकि जब वे मात्र दो वर्ष की थी, तभी उनकी माता का देहान्त हो गया। रतनसिंह अधिकतर समय युद्धरत रहने के कारण मीरा के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी दूदाजी(मीरा के दादाजी) पर आ गई। राव दूदा तलवार के धनी होने के साथ-साथ वैष्णवभक्त भी थे। उन्हीं के सामीप्य में रहकर बालिका मीरा के हृदय में गिरधर गोपाल के प्रति अनन्य आस्था उत्पन्न हुई। पारिवारिक वातावरण, समाज में प्रचलित लोकगीत एवं कभी-कभी राजमहलों में आने वाले साधु-संतों व रमते जोगियों के भक्तिमय उपदेश ही मीरा की पाठशाला बने।
साधु-संगति के प्रभाववश उनका हृदय भक्ति एवं वैराग्य की ओर आकृष्ट हुआ। मीरा के विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्योपरांत मीरा को सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरा ने इसके लिये मना कर  दिया और मीरा ने न अपना शृंगार ही उतारा। मीरा तो गिरधर गोपाल को ही अपना पति मानती थी। वे संसार से विरक्त हो गई और अपना अधिकतर समय भक्तिभाव में ही बिताने लगी। वे मंदिरों में जा कर भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचने गाने लग जाती। उनका यह कृत्य उनके ससुराल पक्ष के राजपरिवार को अच्छा नहीं लगा। कहा जाता है, कि मीरा को मारने के लिये उनको जहर दिया गया और उनके ऊपर साँप छोड़ा किन्तु मीरा बच गई। परिवार के इस व्यवहार से परेशान होकर मीरा वृन्दावन और फिर द्वारिका चली गई। कहते हैं, वहीं पर मीरा का  1558 से 1563ईस्वी के बीच देहावसान हो गया।

मीरा की काव्य रचनाएँ 

मीराबाई द्वारा रचित स्फुट पद मीराँ की पदावली के नाम से प्रकाशित हैं। 
इसके अलावा नरसी जी का मायरा, गीत गोविन्द टीका, राग गोविन्द और राग सोरठ के पद भी मीराबाई द्वारा रचित माने जाते हैं। मीरा की भक्ति कृष्ण के प्रति कान्तभाव की थी। मीरा का काव्य उनके विरह से पगा और आँसुओं भीगा हुआ है।
मीरा द्वारा रचित कुछ पद हैं-
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
सांवरी सूरत, मोहिनी मूरत, नैना बने विशाल।

इसी प्रकार 
दरद न जाणे कोय।
हेरी मैं तो दरद दिवानी म्हारा दरद न जाणे कोय।

क्षण भंगूर जीवन के बारे में मीरा का पद है-
फागण के दिन चार।
फागण के दिन चार होली खेल मना रे।

कृष्ण भक्ति में मीरा कहती है-
मन रे! परसि हर के चरण।
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वाला हरण।

अन्त में मीरा कहती हैं-
पायोजी मैंने रामरतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू कर किरपा अपनायो।

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3 comments:

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काव्य-गुण