छन्द-2(Chhand in Hindi)

छंदों के भेद 

छन्द मुख्यरूप से दो प्रकार के होते हैं-
(1) वर्णिक छन्द – जिन छन्दों की रचना वर्णों की गणना के नियमानुसार होती हैं, उन्हें 'वर्णिक छन्द' कहते हैं।
(२) मात्रिक छन्द – जिन छन्दों के चारों चरणों की रचना मात्राओं की गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं।

छंदों के कुछ प्रकार

दोहा

दोहा एक मात्रिक छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। 
उदाहरण -ऽ  I
ऽ I   I  I I   ऽ I I    I ऽ    =13                 I I    I I   ऽ ऽ   ऽ I    =11
रात-दिवस, पूनम-अमा,(प्रथम चरण)      सुख-दुख, छाया-धूप। (द्वितीय चरण)
 I I   ऽ  I I   I I   ऽ I ऽ    =13                 I I ऽ  I  I ऽ   ऽ I    =11
यह  जीवन  बहु  रूपिया, (तृतीय चरण)   बदले कितने  रूप॥   (चतुर्थ चरण)
रोला
रोला भी मात्रिक छंद होता है। इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
 ऽ ऽ I I   I I ऽ I =11        I I I  I I  I I  ऽ I I   ऽ   =13
नीलाम्बर परिधान,            हरित पट पर सुन्दर है।

सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।

यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥

सोरठा

सोरठा मात्रिक छंद है,और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
रहिमन हमें न सुहाय, =11 अमिय पियावत मान विनु।=13
 जो विष देय पिलाय,=11   मान सहित मरिबो भलो।।=13

सोरठा और रोला में पहला  अंतर यह है,कि सोरठा के विषम चरणों में तुक होती है , सम चरणों में तुक होना जरुरी नहीं है। दूसरा अंतर ये है कि सोरठा के अंत में लघु वर्ण आता है। बाकी संरचना समान ही है; विषम चरणों में 11 मात्राएँ तथा सम चरणों 13-13 मात्राएँ रहती हैं |

चौपाई

चौपाई सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।=16    जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ।।=16
राम दूत अतुलित बल धामा ।=16     अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ।।=16

कुंडलिया

कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। 
उदाहरण -
    दोहा कुण्डलिया बने, ले रोलों का भार,
              तेरह-ग्यारह जोड़िये, होगा बेड़ा पार |
     होगा बेड़ा पार,छंद की महिमा न्यारी,
        बहती रस की धार, मगन हो दुनिया सारी |
     'अम्बरीष' क्या छंद, शिल्प ने सबको मोहा,
          सर्दी बरखा धूप, खिले हर मौसम दोहा ||
एक अन्य उदाहरण
      साईं इस संसार में, मतलब को व्यवहार,
              जब लगि पैसा गाँठ में तब लगि ताको यार |
     तब लगि ताको यार,यार संगहि संग डोलें,
              पैसा रहा न पास, यार मुख सों नहिं बोले |
     कह गिरधर कविराय जगत यहि लेखा भाई,
             करत बेगर्जी प्रीति यार बिरला कोई सांईं ||

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छन्द-1(Chhand in Hindi)

                हिन्दी में  छन्द 

काव्य-शास्त्र के नियमानुसार जिस कविता या काव्य में मात्रा, वर्ण, गण, यति, लय आदि का विचार करके शब्द-योजना की जाती है, उसे छन्द कहते हैं। काव्य में छन्द के माध्यम से कम शब्दों में अधिकाधिक भावों की अभिव्यक्ति हो जाती है ।
लय, यति, गति, वर्ण आदि से बंधी रचना को छन्द कहते हैं ।

छन्द के निम्नलिखित अंग होते हैं 

गति - छन्द को एक प्रवाह में पढ़ा जाता है, उस प्रवाह को गति कहते हैं।
यति - पद्य पाठ करते समय जहाँ  कुछ क्षण रुका  जाता है, उसे यति कहते हैं।
तुक - पद के चरणों के अंत में समान स्वरों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।
मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं।
मात्रा दो प्रकार की होती है-लघु और गुरु। 
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। 
लघुमात्रा का मान 1 होता है और उसे खड़ी पाई (।) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। 
इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान 2 होता है और उसे (ऽ) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।
गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा।
गणों की संख्या 8 है - 
यगण (।ऽऽ)        कहानी
 मगण (ऽऽऽ)      पांचाली
 तगण (ऽऽ।)       वागीश 
 रगण (ऽ।ऽ)       साधना 
 जगण (।ऽ।)       हरीश 
भगण (ऽ।।)        गायक 
 नगण (।।।)       नमक 
सगण (।।ऽ)       कविता
 'यमाताराजभानसलगा' सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘लघु’ और ‘गुरु'  हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वर्णिक छन्द में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
। ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
चरण/ पद/ पाद
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। दूसरे शब्दों में छंद के चतुर्थांश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
कुछ छंदों में चरण तो चार होते हैं लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को 'दल' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंन्दों से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया =दोहा + रोला ।
चरण 2 प्रकार के होते हैं- सम चरण और विषम चरण। प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।
वर्ण 
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ।
जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता।
वर्ण को ही अक्षर कहते हैं।
वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, तथा इनकी मात्रा वाले शब्द |                                                        दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ तथा इनकी मात्रा वाले शब्द | 
मात्रा
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।
ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है
मात्रा की गणना करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।
 (1) अ, इ, उ, ऋ को लघु माना गया है।
 (2) आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ आदि को गुरु माना गया है ।
 (3) संयुक्ताक्षर में यदि प्रथमाक्षर आधा हो, तो उसकी गणना नही होती है ।
 (4) संयुक्ताक्षर में अन्य अक्षर आधा होने पर पहला वर्ण यदि लघु हो तो उसे गुरु मान लिया जाता है।
 (5) अनुस्वार ( ં)और विसर्ग(:) युक्त वर्ण यदि लघु हो, तो उन्हें गुरु माना जाता है।
 (6) चन्द्र-बिंदु (ँ) के कारण लघु वर्ण गुरु नही होता ।
 (7) जिस वर्ण में रेफ (आधा 'र्') लगा हो तो उससे पहला वर्ण लघु होने पर भी गुरु हो जाता है।
 (8) हलन्त से पूर्व का वर्ण लघु होने पर भी गुरु हो जाता है।

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अलंकार(ALANKAR)-3

अलंकार

अलंकार-3 में हम अर्थालंकारों के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे।
जहाँ काव्य कविता में अर्थ के द्वारा चमत्कार उत्पन्न किया जाता हैं, वहाँ अर्थालंकार होता हैं। इनमें शब्दों की जगह पर उनके पर्यायवाची भी रख दिए जाते हैं, तो उनका चमत्कार यथावत रहता है।

 (1)  उपमा अलंकार 

 उपमा शब्द का अर्थ है 'तुलना'। जहाँ किसी व्यक्ति या वस्तु की अन्य व्यक्ति या वस्तु से चमत्कारपूर्ण समानता दिखायी जाये, वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण - पीपर- पात सरिस मन डोला।
उपमालंकर के चार अंग है -
  उपमेय - जिसका वर्णन या तुलना की जाए। उपमेय हमेशा उपमान से गौण रहता है ।
  उपमान - जिससे उपमेय की तुलना की जाए।यह उपमेय से श्रेष्ठ तथा लोक प्रसिद्ध होता है ।
  वाचक शब्द - समानता बताने वाले शब्द। जैसे-सा, सम, सी, ज्यो, तुल्य आदि।
  साधारण धर्म -उपमेय और उपमान के समान धर्म को व्यक्त करने वाले शब्द।
जैसे - "राधा का मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है"। वाक्य में राधा उपमेय, चन्द्रमा उपमान, के समान वाचक-शब्द तथा सुन्दर समान धर्म है ।
उपमालंकर के निम्न तीन भेद हैं-
(1) पूर्णोपमा-जब कविता में उपमा के चारों ही अंग विद्यमान हों, वहाँ पूर्णोपमा अलंकार होता है।
जैसे- दोनों बाहें कलभकर-सी, शक्ति की पेटिका हैं।
प्रस्तुत पंक्ति में उपमेय(दोनों बाहें), उपमान(कलभ-कर), साधारण-धर्म(शक्ति की पेटिका) तथा वाचक-शब्द (सी) है, अतः यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है।
(2) लुप्तोपमा-जब कविता में उपमा के चारों अंगों में से कोई एक या एकाधिक अंग अनुपस्थित हो । वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है।
जैसे- पड़ी थी बिजली सी विकराल।
प्रस्तुत काव्य-पंक्ति में बिजली(उपमान), सी(वाचक-शब्द) तथा विकराल(साधारण-धर्म) है| यहाँ उपमेय लुप्त है, अतः लुप्तोपमालंकार है
(3) मालोपमा-जब एक ही उपमेय की एकाधिक उपमानों से समानता दिखलाई जाये, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है।
जैसे- अंगड़ाई सी,अलसाई सी, अपराधी सी भय से मौन।

(2) रूपक अलंकार 

 जहाँ गुणों में अत्याधिक समानता दिखलाने के लिए उपमान और उपमेय के भेद को समाप्त कर उन्हें एक कर दिया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसके लिए निम्न बातों की आवश्यकता है -
(1)- उपमेय को उपमान का रूप देना।
(2)- वाचक शब्द का लोप होना।
(3)- उपमेय का भी साथ में वर्णन होना।
उदहारण-
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी।
प्रस्तुत पंक्ति में कवि ने अम्बर और पनघट में तारा और घडा में तथा ऊषा और नागरी में उपमेय व उपमान का भेद नष्ट कर दिया, अतः रूपक अलंकार है। 

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार 

 जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
 इसमें 'मनु', 'मानो','जनु', 'जानो' आदि शब्दों का प्राय: प्रयोग होता है।
उदाहरण-
सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात।
 मनहु नील मणि शैल पर, आतप परयो प्रभात

(4) मानवीकरण अलंकार 

 जहाँ पर काव्य में जड़(निर्जीव) में चेतन(सजीव) का आरोप होता है, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।इसमें निर्जीव पदार्थों को मानव के समान सप्राण चित्रित किया जाता है ।
उदाहरण-
मेखलाकार पर्वत अपार, अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़ ।
अवलोक रहा है बार-बार, नीचे जल में निज महाकार ।।

(5) अतिशयोक्ति अलंकार 

 जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाता है,कि लोक-मर्यादा का उल्लंघन कर जाये, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
आगे नदिया पड़ी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।
एक अन्य उदहारण-
पत्रा ही तिथि पाइए, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यो ही रहत, आनन ओप उजास।।

(6) विभावनालंकार

जब कारण के बिना ही कार्य का होना पाया जाता है, वहाँ विभावना अलंकार होता है।
जैसे- बिना पायल के ही बजे घुंघरू।
एक अन्य उदाहरण-
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन,पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।

(7) विशेषोक्ति अलंकार 

विभावनालंकार के विपरीत जब कारण के रहने पर भी कार्य नही होता है, वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है , जैसे-
सुनत जुगल कर माल उठाई, प्रेम विवश पहिराहु न जाई।
यहाँ माला पहनाने के लिए हाथ हैं, किन्तु पहनाई नहीं जा रही है। अतः विशेषोक्ति अलंकार है ।

(8) दृष्टांत अलंकार 

 इस अलंकार में पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती बात उदाहरण के रूप में कही जाती है । इसमें दो वाक्य होते हैं । एक उपमेय और दूसरा उपमान वाक्य होता है।वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण-
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रस्सी आवत-जात से सिल पर पडत निसान।।

(9) उल्लेख अलंकार 

 जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेकों प्रकार से किया जाता है ,वहाँ 'उल्लेख' अलंकार होता है।
उदाहरण-
तू रूप है किरण में , सौन्दर्य है सुमन में।
 तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ।।

(10) प्रतीप अलंकार 

 प्रतीप का अर्थ है 'उल्टा' या 'विपरीत'। इसमें उपमा के उलट उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ कहा जाता है। इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या हीन दिखाकर उपमेय की श्रेष्टता बताई जाती है।इसी कारण इसे प्रतीप अलंकार कहते हैं।
उदाहरण-
सिय मुख समता किमि करै चन्द वापुरो रंक।
सीताजी के मुख (उपमेय)की तुलना बेचारा चन्द्रमा (उपमान) नहीं कर सकता। उपमेय की श्रेष्टता प्रतिपादित होने से यहां 'प्रतीप अलंकार' है।

(11) भ्रान्तिमान अलंकार 

 जहाँ पर सादृश्यता के कारण उपमेय में उपमान का आभास हो, अर्थात जब एक वस्तु को देखकर उसके समान दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाये तब भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
उदाहरण-
नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाड़िम का समझ कर भ्रान्ति से ।
देखता ही रह गया शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है

(12) संदेह अलंकार

 जब उपमेय से साम्यता के कारण उपमान का संशय हो जाये, देखकर यह निश्चय नही हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनी रहती है,तब संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण-
कोई पुरन्दर की किंकरी(अप्सरा) है, या किसी सुर की सुन्दरी है 
एक अन्य उदाहरण-
सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, नारी ही कि सारी है कि सारी ही कि नारी है

अलंकार (Alankar)-2

अलंकार-2

1. शब्दालंकार -

 जहाँ काव्य में चमत्कार का आधार केवल शब्द हो वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके अंतर्गत अनुप्रास, श्लेष,यमक, वक्रोक्ति आदि अलंकार आते हैं।

अनुप्रास

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों से मिलकर बना है। 'अनु' शब्द का अर्थ है- बार- बार तथा 'प्रास' शब्द का अर्थ है- वर्ण। जिस जगह स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार -बार आवृत्ति होती है, उस जगह अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
"चारु- चन्द्र की चंचल किरणें,  खेल रही थी जल- थल में।"

अनुप्रास अलंकार के पांच भेद हैं:-
(1) छेकानुप्रास अलंकार
(2)  वृत्यानुप्रास अलंकार
(3)  लाटानुप्रास अलंकार
(4)  अन्त्यानुप्रास अलंकार
(5)  श्रुत्यानुप्रास अलंकार
(1) छेकानुप्रास अलंकार:-जहाँ एक या एक से अधिक वर्णों की आवृति केवल एक बार ही हो, वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण -
 "बगरे बीथिन में भ्रमर, भरे अजब अनुराग।
  कुसुमित कुंजन में भ्रमर,भरे अजब अनुराग।।"
(2) वृत्यानुप्रास अलंकार - जहाँ एक व्यंजन की आवृति अनेक बार हो, वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
 तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
(3) लाटानुप्रास अलंकार - जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवृति उसी अर्थ मे हो,वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
पराधीन जो जन, नही स्वर्ग-नरक ता हेतु ।
पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेतु ।।
(4) अन्त्यानुप्रास अलंकार:- जहाँ छन्द के चरणों के अन्त में एक समान वर्णों का प्रयोग होता है, वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
लगा दी किसने आकर आग। कहाँ था तू संशय के नाग ?
(5) श्रुत्यानुप्रास अलंकार:- जहाँ कानो को मधुर लगने वाले वर्णों की आवृति होती है, वहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
 दिनांत था ,थे दीननाथ डूबते, सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।

श्लेष अलंकार  

श्लेष का अर्थ -'चिपका हुआ' होता है।जहाँ काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के एक अर्थ के साथ-साथ एकाधिक अर्थ चिपककर आ जाते हैं | वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण -
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून | पानी गये ना ऊबरे, मोती, मानुस, चून ||
यहाँ पानी का अर्थ मोती के लिए चमक,मनुष्य के लिए मान-सम्मान तथा चून(आटे) के लिए जल है | अतः श्लेष अलंकार है ।
श्लेषालंकार के निम्न दो भेद हैं-
अभंग श्लेष - जहाँ पर शब्द के विभिन्न अर्थ टुकड़े किये बिना ही स्पष्ट हो जाते हैं, तो अभंग श्लेष अलंकार माना जाता है | जैसे पानी गए न ऊबरे........।दोहे में पानी के तीनों अर्थ बिना टुकड़े किये ही प्राप्त हो जाते हैं ।अतः यहाँ अभंग श्लेष अलंकार है ।
सभंग श्लेष - जहाँ शब्द के एकाधिक अर्थ प्राप्त करने के लिए उसके टुकड़े करने पड़ें । वहाँ पर सभंग श्लेष अलंकार होता है । जैसे-
चिरजीवों जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गंभीर। 
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
यहाँ पर 'वृषभानुजा' शब्द के दो अर्थ प्राप्त करने के लिए इसके दो टुकड़े (वृषभानु+जा=राधा) तथा (वृषभ+अनुजा=बैल की बहिन गाय) करने सकते हैं ।अतः यहाँ सभंग श्लेष अलंकार है ।

यमक  अलंकार 

जहाँ कोई शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हो और उसके अर्थ अलग -अलग हों वहाँ पर यमक अलंकार होता है। 
जैसे :    
कनक कनक तें सौ गुनी, मादकता अधिकाय। 
            या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।
यहाँ पर  पहले में 'कनक' का अर्थ ‘सोना’ तथा दूसरे का  ‘धतूरा’ है। 
 एक अन्य उदहारण-
  काली 'घटा' का घमण्ड 'घटा' ।
यहाँ पहले घटा शब्द का अर्थ 'बादल' तथा दूसरे घटा शब्द का अर्थ घटना या कम होना है । अतः यमकालंकार है ।

वक्रोक्ति अलंकार

वक्रोक्ति शब्द वक्र=टेढ़ी, उक्ति=बात अर्थात टेढ़ी बात से बना है।
जहाँ श्रोता, वक्ता के कथन का जान-बूझकर साधारण अर्थ को छोड़कर टेढ़ा अर्थ निकालता या समझता है, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है ।
जैसे- प्यारी काहे आज तुम वामा है इतराय ।
 हम तो हैं वामा सदा, इसमें अचरज की क्या बात।।
इस वाक्य में नायक अपनी नायिका से पूछ रहा है,कि प्यारी आज तुम वामा (टेढ़ी) होकर क्यों इतरा रही हो ? नायिका जवाब देती है, कि हम तो सदा से ही वामा (स्त्री) हैं,इसमें आश्चर्य की क्या बात है। यहाँ नायिका जान-बूझकर वामा का अर्थ टेढ़ी न ग्रहणकर स्त्री कर रही है, अतः वक्रोक्ति अलंकार है।

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अलंकार(Alankar)-1

   अलंकार

जिस प्रकार शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार कविता में सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है | 
'अलंकार' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- आभूषण 
काव्य रूपी काया की शोभा बढ़ाने वाले अवयवों को अलंकार कहते हैं।
दूसरे शब्दों में जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढाते हैं, उसी प्रकार अलंकार साहित्य या काव्य को सुंदर व रोचक बनाते हैं।अलंकारों के बारे में कवि केशवदास ने कहा है, कि-
 जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त।
  भूषण बिनु न बिराजई, कविता, बनिता, मित्र।।
अर्थात श्रेष्ठ गुणी होने पर भी कविता और बनिता(स्त्री) आभूषणों(अलंकारों) के बिना शोभा नही देते हैं |
अलंकारों के प्रमुख तीन भेद होते हैं -
(1) शब्दालंकार
(2) अर्थालंकार
(3) उभयालंकार

(1) शब्दालंकार

कविता में जहाँ सौन्दर्य शब्दों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है, वहाँ शब्दालंकार होता है | यदि शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख देते हैं, तो काव्य का चमत्कार नष्ट हो जाता है |
प्रमुख शब्दालंकार अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि हैं ।

(2) अर्थालंकार 

जो काव्य में अर्थ के द्वारा चमत्कार उत्पन्न करते हैं, वे अर्थालंकार कहलाते हैं | जैसे उपमा, रूपक आदि । यहाँ शब्दों की जगह पर उनके पर्यायवाची भी रख दिए जाते हैं, तो उनका चमत्कार यथावत रहता है ।

(3) उभयालंकार 

जो शब्द और अर्थ दोनों में चमत्कार पैदा करके काव्य की शोभा बढाते हैं, वे उभयालंकार हैं । इन्हें संसृष्टि या संकर भी कहते हैं |

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प्रतीक (Prateek)

प्रतीक सामान्यत 'चिह्न' को कहते हैं |
कविता में जब कोई वस्तु इस तरह प्रयोग की जाती है, कि वह किसी दूसरी वस्तु की व्यंजना या संकेत करे तब उसे प्रतीक कहते हैं |
काव्य में सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिए कवियों द्वारा बात को सीधे ढंग से न कहकर उन्हें प्रतीक शैली में प्रकट किया जाता है | काव्य में प्रतीकों का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है |
अज्ञेय जी के अनुसार "कोई भी काव्यसाहित्य प्रतीकों की, नये प्रतीकों की सृष्टि करता है, और जब वह ऐसा करना बंद कर देता है तब जड़ हो जाता है |"

  1. कवि जिन प्रतीकों का प्रयोग करता है, वे मौलिक होने चाहिए |
  2. प्रतीक सन्दर्भ या प्रसंग के अनुकूल होने चाहियें |
  3. प्रतीक ऐसे हों जो कि जन साधारण के समझ आ सकें |
  4. प्रतीक कवि के उद्देश्य को पूरित करने वाले होने चाहिए |
  5. प्रतीक कविता के सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले होने चाहिए |
उदहारण - कबीर दास जी का एक दोहा -
            मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
                 मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़ अनत न जाहिं ||
यहाँ पर मानसरोवर = आध्यात्मिक जीवन, जल = ब्रह्मानुभूति, हंस = आत्मा तथा मुक्ता = ज्ञान का प्रतीक है | 
इसी प्रकार-
कवि अज्ञेय द्वारा 'कलगी छरहरे बाजरे की' नामक कविता में नारी के सौन्दर्य का चित्रण नये प्रतीकों द्वारा किया गया है -
ये उपमान मैले हो गए हैं , देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच |
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है,
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी ?
अगर मैं ये कहूँ, बिछली घास हो तुम, 
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की |

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रीति(Reeti in hindi)

रीति 

यह शब्द रीड धातु में क्तिन प्रत्यय के योग से बना है । अतः रीति का अर्थ हुआ 'मार्ग'। अर्थात रीति कविता का वह मार्ग या रास्ता है, जिससे वह गति करती है या गुजरती है ।
काव्य रीति से अभिप्राय मोटे तौर पर काव्य रचना की शैली से है। 
यद्यपि संस्कृत काव्यशास्त्र में यह एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है। काव्य रीति को काव्य की आत्मा मानकर काव्य पर विचार करने वाला एक संप्रदाय रीति-संप्रदाय के नाम से विख्यात है, जिसके प्रवर्तक आचार्य वामन हैं।
रीतिरात्मा काव्यस्य।
आचार्य वामन रीति को काव्य की आत्मा मानते हैं | वे रीति को पद रचना की विशिष्ट शैली मानते हैं।
रीति के तीन भेद माने गए | 
 (1) वैदर्भी रीति 
 (2) गौड़ी रीति 
 (3) पांचाली रीति

(1) वैदर्भी रीति  

 माधुर्य व्यंजक वर्णों से युक्त, दीर्घ समासों से रहित तथा छोटे समासों वाली ललित पदरचना का नाम वैदर्भी है | यह रीति श्रृंगार आदि ललित एवं मधुर रसों के लिए अधिक अनुकूल होती है। 
विदर्भ देश के कवियों के द्धारा अधिक प्रयोग में आने के कारण इसका नाम वैदर्भी है।  इसका दूसरा नाम ललिता भी है। वामन तथा मम्मट इसे 'उपनागरिका रीति' भी कहते हैं। 
आचार्य रूद्रट के अनुसार वैदर्भी का स्वरूप इस प्रकार है – समास रहित अथवा छोटे-छोटे समासों से युक्त, श्लेषादि दस गुणों से युक्त एवं 'च' वर्ग की अधिकता युक्त, अल्पप्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति वैदर्भी कहलाती है। वैदर्भी रीति काव्य में विशेष प्रशंसित रीति है। कालिदास को वैदर्भी रीति की रचना में विशेष सफलता मिली है। इस प्रकार वैदर्भी रीति काव्य में सर्वश्रेष्ठ मान्य है। 
उदाहरण - 1.  
      मधुशाला वह नहीं, जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
        भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।
उदाहरण - 2.
    रस सिंगार मंजनु किये कंजनु भंजनु दैन ।
      अंजनु रंजनु ही बिना खंजनु गंजनु नैन ।।   (बिहारी सतसई )
उदाहरण - 3.
     परिरंभ-कुंभ की मदिरा निश्वास मलय के झोंके ।
     मुख-चन्द्र चांदनी-जल से मै उठता था मुख धोके ।। (आंसू)
इस पद में कोमल मधुर वर्णों का प्रयोग हुआ है, समासों का अभाव है। पदावली ललित है,श्रुतिमधुर है, अतः वैदर्भी रीति है।

(2) गौडी रीति  

यह ओजपूर्ण शैली है। ओजपूर्ण वर्णों से सम्पन्न, दीर्घ समास वाली रीति गौडी होती है। वामन गौडी रीति के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं, कि इसमें ओज और कान्ति गुणों का प्राधान्य तथा समास की बहुलता रहती है। मधुरता तथा सुकुमारता का इसमें अभाव रहता है। रुद्रट ने इस को दीर्घ समास वाली रचना माना है | जो कि रौद्र, भयानक, वीर आदि उग्ररसों कीअभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त होती है।
इस रीति की रचना में उद्दीपक वर्णों का प्रयोग होता है, जिससे शौर्य भावना का आविर्भाव होता है। इसी गौडी रीति का दूसरा नाम “परूषा” है। 
गौड़ (बंगाल) प्रदेश के कविजन इस रीति में कविता रचते हैं |
उदाहरण -1.
   अच्छहि निश्च्छ रच्चाहि उजारौं इमि।
    तो से तुच्छ तुच्छन को कछवै न गंत हौं।।
     जारि डारौं लङ्कहि उजारि डारौं उपवन।
     फारि डारौं रावण को मैं हनुमंत हौं।।
उदाहरण -2.
  देखि ज्वाल-जालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
     कह्यो धरो-धरो, धाए बीर बलवान हैं ।
     लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड
      भोजन सनीर, धीर धरें धनु -बान है ।
 ‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
   जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है ।
     स्रुवा सो लँगूल , बलमूल प्रतिकूल हबि,
     स्वाहा महा हाँकि-हाँकि हुनैं हनुमान हैं । (कवितावली)
इस उदाहरण में संयुक्ताक्षरों का प्रचुर प्रयोग है, ओज गुण की अभिव्यक्ति हो रही है। महाप्राण – ट,ठ,ड,ण,ह आदि का प्रयोग हुआ है, अतः इस पद में गौडी रीति है।

(3) पांचाली रीति

पांचाली रीति न तो वैदर्भी रीति की भांति समास रहित होती है, और न ही गौडी की भांति समास-जटित होती है। यह मध्यममार्गी है । इसमें छोटे-छोटे समास अवश्य मिलते है। इस रीति से काव्य भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनता है ।अनुस्वार का प्रयोग न होने से यह वैदर्भी की तुलना में अधिक माधुर्य युक्त होती है ।
जैसे –   मानव जीवन-वेदी पर
           परिणय हो विरह-मिलन का
            सुख-दुःख दोनों नाचेंगे
             है खेल, आँख का मन का ।
समास की स्थिति के अनुसार रीतियां निम्न प्रकार होती हैं ।
1 समास के सर्वथा अभाव की स्थिति में - वैदर्भी रीति।
2 समास के अल्प मात्रा में रहने पर – पाँचाली रीति।
3 समास की बहुलता रहने पर – गौडी रीति ।
 आचार्य वामन के मत में रचना और चमत्कार दोनों रीति पर आश्रित है, वही माधुर्य आदि गुणों के कारण चित्त को द्रवित कर रस-दशा तक पहुँचाती हैं। अतः रीति ही काव्य का सर्वस्व है।


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काव्य-गुण (kavya-Gun)

काव्यगुण 

काव्य में  आन्तरिक सौन्दर्य तथा रस के प्रभाव एवं उत्कर्ष के लिए स्थायी रूप से विद्यमान मानवोचित भाव और धर्म या तत्व को काव्य गुण या शब्द गुण कहते हैं। यह काव्य में उसी प्रकार विद्यमान होता है, जैसे फूल में सुगन्ध।

अर्थात काव्य की शोभा करने वाले  या रस को प्रकाशित करने वाले तत्व या विशेषता का नाम ही गुण है।

काव्य गुण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं -

 1. माधुर्य  2. ओज  3. प्रसाद

1. माधुर्य गुण 

किसी काव्य को पढने या सुनने से ह्रदय में जहाँ मधुरता का संचार होता है, उसमें माधुर्य गुण होता है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार, शांत, एवं करुण रस में पाया जाता है।

(अ) माधुर्य गुण युक्त काव्य में कानों को प्रिय लगने वाले मृदु वर्णों का प्रयोग होता है,  जैसे - क,ख, ग, च, छ, ज,              झ, त, द, न, ...आदि। (ट वर्ग को छोडकर)
(ब)  इसमें कठोर एवं संयुक्ताक्षर वाले वर्णों का प्रयोग नहीं किया जाता।
(स) आनुनासिक वर्णों की अधिकता।
(द) अल्प समास या समास का अभाव।
इस प्रकार हम कह सकते हैं,कि  कर्ण प्रिय, आर्द्रता, समासरहितता, चित की द्रवणशीलता और प्रसन्नताकारक     काव्य माधुर्य गुण युक्त काव्य होता है।
उदाहरण 1.
        बसों मोरे नैनन में नंदलाल,
          मोहिनी मूरत सांवरी सूरत नैना बने बिसाल।

उदाहरण 2.
          कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि।
              कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥

उदहारण 3.
      फटा हुआ है नील वसन क्या, ओ यौवन की मतवाली ।
           देख अकिंचन जगत लूटता, छवि तेरी भोली भाली ।।

2. ओज गुण 

ओज का शाब्दिक अर्थ है-तेज, प्रताप या दीप्ति ।
 जिस काव्य को पढने या सुनने से ह्रदय में ओज, उमंग और उत्साह का संचार होता है, उसे ओज गुण प्रधान काव्य कहा जाता हैं ।
यह गुण मुख्य रूप से वीर, वीभत्स, रौद्र और भयानक रस में पाया जाता है।
(अ) इस प्रकार के काव्य में कठोर संयुक्ताक्षर वाले वर्णों का प्रयोग होता है।
(ब) इसमें संयुक्त वर्ण 'र' के संयोगयुक्त ट, ठ, ड, ढ, ण का प्राचुर्य होता है।
(स) समासाधिक्य और कठोर वर्णों की प्रधानता होती है।
उदाहरण 1.
     बुंदेले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
        खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

उदाहरण 2.
   हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुध्द शुध्द भारती।
     स्वयं प्रभा, समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।

उदाहरण 3.
हाय रुण्ड गिरे, गज झुण्ड गिरे, फट-फट अवनि पर शुण्ड गिरे।
    भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे, लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे।

3. प्रसाद गुण 

 प्रसाद का शाब्दिकार्थ है - निर्मलता, प्रसन्नता।
 जिस काव्य को पढ़ने या सुनने से हृदय या मन खिल जाए , हृदयगत शांति का बोध हो, उसे प्रसाद गुण कहते हैं। इस गुण से युक्त काव्य सरल, सुबोध एवं सुग्राह्य होता है। जैसे अग्नि सूखे ईंधन में तत्काल व्याप्त हो जाती है, वैसे ही प्रसाद गुण युक्त रचना भी चित्त में तुरन्त समा जाती है।
यह सभी रसों में पाया जा सकता है।
उदाहरण 1
       जीवन भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
       तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।।

उदाहरण 2.
        हे प्रभो ज्ञान दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।
         शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।।

उदाहरण 3.
 विस्तृत नभ का कोई कोना,
      मेरा न कभी अपना होना।
          परिचय इतना इतिहास यही ,
             उमड़ी कल थी मिट आज चली।।

नोट- हिन्दी भाषा व्याकरण, काव्य-शास्त्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं हिन्दी व्याकरण ऑनलाइन टेस्ट देने उनकी उत्तर व्याख्या वीडियो देखने के लिए log in करें hindikojano.com और हिन्दी भाषा से सम्बंधित समस्त विषय-वस्तु प्राप्त करें |



रस-2 (Ras in hindi)

रस-2

जिस प्रकार मिट्टी में गन्ध स्थायी होती है, किन्तु पानी डालने पर वह बाहर आ पाती है | उसी प्रकार प्रत्येक सामाजिक प्राणी में रति, हास, शोक, क्रोध आदि स्थायी भाव संस्कारजन्य होते हैं | जो कि विभिन्न कारणों से अव्यक्त रहते हैं | विभाव, अनुभाव, संचारी के सहयोग से वे अव्यक्त स्थायीभाव व्यक्त हो जाते हैं | उन्हीं का आनंदानुभव 'रस' है |

रसों के प्रकार

(1)  श्रृंगार रस
 श्रृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का आकर्षण होता है |
इसका स्थायी भाव रति है |
जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति भाव का रसास्वादन होता है, वहाँ श्रृंगार माना जाता है | 
श्रृंगार रस के दो भेद हैं - (अ) संयोग श्रृंगार     (ब) विप्रलंभ या वियोग श्रृंगार
 (अ) संयोग श्रृंगार
जब कविता में नायक-नायिका के मिलन या संयोग का वर्णन किया जाता है, वहाँ संयोग श्रृंगार होता है | जैसे-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय | सौंह करें, भौहनि हँसे, देन कहे नटजाय ||
(ब) विप्रलंभ या वियोग श्रृंगार 
नायक-नायिका के बिछुड़ने या दूर देश में रहने की स्थिति का वर्णन वियोग श्रृंगार में आता है |
कागज पर लिखत न बनत, कहत सन्देश लजात | कहि है सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात || 

(2) हास्य रस

हास्य रस का स्थायी भाव 'हास' होता है |
जब किसी व्यक्ति विशेष की विकृत वाणी, विकृत वेश एवम् आकृति, चेष्टा आदि को देखकर या सुनकर हँसी उत्पन्न होती है | वहाँ हास्य-रस होता है |
वैद्य, डॉक्टर को कभी नहीं दिखाओ नब्ज | ठूँस-ठूँस कर खाइये, भाग जायेगी कब्ज ||

(3) करुण रस

 करुण रस का स्थायी भाव 'शोक' है |
जब प्रिय वस्तु या व्यक्ति का नाश और अनिष्ट की प्राप्ति से चित्त में जो विकलता आती है | वही करुण रस है |

              नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
                                                पर इनसे जो आँसू बहते,
             सदय हृदय वे कैसे सहते ?
                                              गये तरस ही खाते !
             सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

(4) रौद्र रस 

रौद्र रस का स्थायी भाव 'क्रोध' होता है |
विरोधी पक्ष द्वारा किसी मनुष्य, देश, समाज या धर्म का अपमान करने से उसके प्रतिशोध में जो क्रोध का भाव पैदा होता है, वही रौद्र रस होता है |
सुनत लखन के वचन कठोरा, परशु सुधारि धरेउ कर घोरा |
अब जन देउ दोष मोहि लोगू, कटुवादी बालक वध जोगू ||

(5) वीर रस 

वीर रस में 'उत्साह'  स्थायी भाव होता है |
युद्ध में विपक्षी को देखकर, ओजस्वी वीर घोषणाएँ, वीर गीत सुनकर युद्ध उत्साह बढ़ता है | यही वीर रस है |
जैसे- 
उठो धरा के अमर सपूतो 

                                      पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
                                      नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नया प्रात है, नई बात है,
                                     नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे,
                                     नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
                                    नई-नई मुसकान भरो।

(6) भयानक रस 

इसका स्थायी भाव 'भय' है |
भयानक वस्तु के देखने या सुनने से जब ह्रदय में भय परिपुष्ट होता है, वहाँ भयानक रस रहता है |
हाहाकार हुआ क्रंदनमय, कठिन वज्र होते थे चूर |
हुए दिगन्त बधिर भीषण रव बार-बार होता था क्रूर ||

(7) वीभत्स रस 

वीभत्स रस का स्थायी भाव 'जुगुप्सा' या घृणा है |
दुर्गन्धयुक्त वस्तुओं,चर्बी,रुधिर,उद्वमन आदि को देखकर मन में जो घृणा पैदा होती है, वहाँ वीभत्स रस रहता है |
जैसे-   कहुं धूम उठत, बरति कहुं चिता, कहुं होत रोर कहुं अर्थी धरि अहे | 
           कहुं हाड़ परो, कहुं जरो, अधजरो माँस, कहुं गीध काग माँस नोचत पीर अहे |

(8) अद् भुत रस 

अद् भुत रस का स्थायी भाव 'विस्मय' है |
अलौकिक व आश्चर्यजनक वस्तुओं या घटनाओं को देखने सुनने से जो विस्मय होता है, वही अद् भुत रस में परिणित हो जाता है |
अखिल भुवन चर-अचर जग, हरि मुख में लखि मातु |चकित भई गद गद वचन, विकसित दृग पुलकातु ||

(9) शान्त रस 

शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद या शम है |
संसार की अनित्यता एवम् दुःख की अधिकता को देखकर ह्रदय में विरक्ति उत्पन्न होती है | यही शान्त रस का कारण है |
चलती चाखी देखकर दिया कबीर रोय | दोउ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ||

(10) वात्सल्य रस 

इसका स्थायी भाव 'वात्सल्य' है |
माता-पिता या अन्य व्यक्तियों द्वारा अल्पव्यस्क शिशु के प्रति प्रेम ही वात्सल्य है |
जैसे-
            चलत देखि जसुमति सुख पावै।
           ठुमकि-ठुमकि पग धरनि रेंगत, जननी देखि दिखावै।
           देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहिं कौ आवै।
           गिरि-गिरि परत,बनत नहिं लाँघत सुर-मुनि सोच करावै।

(11) भक्ति रस 

इसका स्थायी भाव देवी-देवताओं के प्रति प्रेम (रति) है |

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई,
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई ||

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रस (RAS IN HINDI)

काव्य-रस 

'रस' शब्द 'रस+अच्' के संयोग से बना है, जिसका अर्थ है 'सार' 

रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।
काव्य में रस किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह काव्य-शास्त्र का शाश्वत प्रश्न रहा है।
 संस्कृत काव्य-शास्त्र आद्याचार्य भरत मुनि ने अपने विख्यात रससूत्र में रस निष्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा-विभावानुभाव-व्यभिचारी-संयोगाद् रसनिष्पत्तिः।
 जिस प्रकार एक स्वस्थ मनुष्य अनेक व्यंजनों से युक्त भोजन का रसास्वादन करता है,उसी प्रकार विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से सम्पन्न स्थायी भावों का आस्वादन करते हुए सहृदयीजन 'रस' का आनन्द लेते हैं ।  अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति (उत्पत्ति) होती है। 

 रस के चार अवयव या अंग हैं -

(1) स्थायी भाव
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िरी तक होता है। स्थायी भाव वे हैं जो रस की दशा तक पहुंचते हैं । स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतः इनकी भी संख्या 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: रस नौ ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने दो और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को भी स्थायी भाव की मान्यता दे दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।

(2) विभाव

भावों को जाग्रत करने वाले तत्व 'विभाव' कहलाते हैं । इनके कारण ही रस उत्पन्न होता है ।

विभाव के दो भेद हैं - (1) आलंबन विभाव   (2) उद्दीपन विभाव

आलंबन विभाव

जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जागते हैं, आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे= नायक-नायिका। आलंबन विभाव के भी दो पक्ष होते हैं-(1) आश्रयालंबन (2) विषयालंबन

 जिसके मन में भाव जागे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जागे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय ।

उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त(जाग्रत) होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

(3) अनुभाव

आलम्बन विभाव के द्वारा उद्दीप्त हो जाने पर आश्रय (नायक-नायिका ) के मनोभावों को व्यक्त करने वाली जो शारीरिक चेष्टाएँ होती है, अनुभाव कहलाते हैं।

अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-

स्तंभ -स्वेद
रोमांच- स्वर-भंग
कम्प -विवर्णता (रंगहीनता)
अश्रु -प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता)।

(4) संचारी या व्यभिचारी भाव

स्थायी भावों में उठने और विलीन होने वाले  भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं। ये संचारी भाव उसी प्रकार उठते और लुप्त होते रहते हैं जैसे जल में बुलबुले और लहरें उठती और विलीन होती रहती हैं । एक रस के स्थायी भाव के साथ-साथ अनेक संचारी भाव आते हैं ।

एक रस के स्थायी भावों के साथ-साथ अनेक संचारी भाव आते-जाते रहते हैं, तथा एक संचारी भाव किसी एक स्थायी भाव के साथ या रस के साथ ही नही रहता वरन अनेक रसों के साथ संचरण भी करता रहता है । इसीलिए संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहते हैं |
संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है, जो कि निम्न प्रकार है-
                         संचारी या व्यभिचारी भाव
हर्ष                     विषाद             त्रास           लज्जा            ग्लानि
चिंता                  शंका              असूया        अमर्ष             मोह
गर्व                    उत्सुकता          उग्रता       चपलता         दीनता
जड़ता               आवेग              निर्वेद        धृति               मति
विबोध               श्रम                आलस्य       निद्रा              स्वप्न
स्मृति                 मद                उन्माद       अवहित्था       अपस्मार (मूर्च्छा)
व्याधि (रोग)       मरण               व्रीडा

उक्त चार प्रकार के भावों के माध्यम से ही हमें रस की प्राप्ति होती है |

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काव्य हेतु(kavya hetu)

काव्य हेतु का अर्थ "काव्य का प्रयोजन या काव्य का उद्देश्य " है।
काव्य प्रयोजन से तात्पर्य उस शक्ति से है जिसकी प्रेरणा से कवि कविता लिखने को उद्यत होता है। किसी भी कार्य को करने के पीछे कर्ता का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यही उद्देश्य (हेतु ) मनुष्य को किसी भी कार्य में प्रवृत करता है। काव्य की सर्जना के पीछे उसके सर्जक का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है ।यही उद्देश्य काव्य प्रयोजन कहलाता है ।
भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से ही काव्य हेतु या काव्य प्रयोजन पर चर्चा होती रही है | संस्कृत के काव्य शास्त्रियों ने अपने-अपने मतानुसार काव्य हेतुओं का वर्णन किया है, जो कि निम्न प्रकार है -

भरत मुनि 

भरत मुनि ने काव्य-प्रयोजन की चर्चा नाटक के सन्दर्भ में की है | उन्होंने नाटक का उद्देश्य धर्म कमाना, हित-साधन, आयु-वर्धन, बुद्धि-वर्धन एवम् लोकोपदेश माना है | और उक्त कारण ही कवि को कविता लिखने हेतु प्रेरणा देते हैं ।

आचार्य भामह 

भामह ने काव्य का  प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के साथ-साथ अतिरिक्त कलाओं में विलक्षणता,कीर्ति और आनंद की उपलब्धि को माना है |

आचार्य वामन 

वामनाचार्य ने काव्य प्रयोजन को दो वर्गों में विभाजित करते हुए (1) दृश्य और (2) अदृश्य प्रयोजन बताया है ।उन्होने   कीर्ति को अदृश्य प्रयोजन या अप्रत्यक्ष प्रयोजन तथा प्रीति और आनन्द प्राप्ति को दृष्य या  प्रत्यक्ष प्रयोजन माना है।

आनन्दवर्धन के काव्य प्रयोजन 

आनन्दवर्धन काव्य का प्रयोजन सहृदयों के मनोरंजन को मानते हैं।

मम्मट के काव्य प्रयोजन 

आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के निम्न छः प्रयोजन हैं-
1. यश की प्राप्ति                       2.धन की प्राप्ति 
3. व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति    4. आशिव की क्षति 
5. अलौकिक आनंद की प्राप्ति   6. भार्यासम मधुर उपदेश 

हिंदी के भी कुछ आचार्यों ने काव्य प्रयोजन पर प्रकाश डाला है- 

कुलपति

कुलपति ने आचार्य मम्मट के समान छः प्रयोजन माने हैं।
"जस, सम्पत्ति, आनन्दअति, दुखिन डारे खोय।
होत कवित पे चतुरई ,जगत बाम बस होय।।"
कुलपति के अनुसार यश, सम्पत्ति, आनन्द, सुख प्राप्ति के साथ-साथ  दुखों का नाश व संसार का पत्नी के समान वामभागी होना ये छ्ह प्रयोजन माने गये हैं ।

देव

आचार्य देव ने केवल यश को काव्य हेतु मानते हुए भामह की पुष्टि की है -
ऊँच नीच अरु कर्म बस, चलो जात संसार।
रहत भव्य भगवंत जस , नव्य काव्य सुख सार।।

गोस्वामी तुलसीदास 

तुलसीदास ने काव्य रचना आत्मसुख के लिए की। अतः वे काव्य प्रयोजन 'स्वान्त सुखाय' मानते हैं ।
"स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा |"
उपरोक्त विवेचनानुसार ही कवि का प्रयोजन काव्य की सर्जना करते समय रहता है, और पाठक या श्रोता का प्रयोजन काव्य को पढ़ते या सुनते समय रहता है । इन दोनों को ही आनन्दानुभूति आवश्यक है।

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काव्य-गुण